न भूतो न भविष्यति

इट्स आल अबाउट इकॉनमी, स्टुपिड !!!   

क्लिंटन के इलेक्शन कैंपेन की टैगलाइन बनाया था।  15 साल पहले, राजीव इसे करके दिखा चुके थे। यह शख्स जानता था, कि विकास का मतलब, अर्थव्यवस्था है।
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वित्तमंत्री के रूप में एक बार बजट पेश किया राजीव ने- 1987-88 का। और वो देश का अनोखा बजट था - शून्य आधारित बजट।

हार्डवर्क वाले इसे नही जानते, रॉ विज़डम वालो को नही पता, ये एक मैनेजमेंट टूल है, ख़र्चपर नियंत्रण का।

पारंपरिक बजट में, होता ये है, की पिछले साल जो खर्च अनुमत था, इस साल भी सही मान लिया जाता है। बहस कुछ घट बढ़ की होती है।

इसका मतलब की 90 के दशक तक पुलिस वालों को 15 रुपये घोड़ा'चना एलाउंस मिलता है।

पुराने साल की परंपरा पर, अरबों का खर्च निकाल देना, करप्शन, और जवाबदेही से बचने का मार्ग था।जीरो बेस्ड बजट हर खर्च पर सवाल करता है।

इस पर खर्च 0 क्यो नही होना चाहिये? क्या इसकी जरूरत है? जीरो बेस्ड बजटिंग, फेजेस में, अगले 3 साल में पूर्णतया लागू की जानी थी।
यह प्रयास एक विडंबना का शिकार हुआ।
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राजीव पर भ्रस्टाचार का आरोप लगाकर बदनाम करने वाले  VP अगले पीएम बने। ईमानदारी के उस कथित पुतले ने, इस प्रक्रिया को किनारे लगा दिया।

राजीव का आर्थिक योगदान उनके बड़े फैन्स भी नहीं जानते। जब राजीव गद्दी पर आए, 4.5% ग्रोथ थी। पंजाब में आतंक, उत्तर पूर्व अशान्त था। चीन-पाकिस्तान इस नए बछड़े को दबा देने के कॉन्फिडेंस में थे।

5 साल बाद पाकिस्तान "ऑपरेशन राजीव" और चीन "ऑपरेशन फाल्कन" के जख्म सहला रहा था । उत्तर पूर्व में शांति थी। सार्क, अखण्ड भारत बन रहा था।

मालदीव और लंका की सरकारे राजीव की अहसानमंद थी।

और इकॉनमी?? भारत के इतिहास में अकेली बार डबल डिजिट ग्रोथ मिली ।
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राजीव का पहला बजट ही नई दिशा में कदम था। 1985 में टैक्स की दरें घटी। लाइसेंस राज के खात्मे और निजी क्षेत्र में स्पर्धा की शुरआत, 1986 के बजट से हुई।

टैक्स स्लैब और राज्यो के बीच टैक्स का अंतर खत्म करने की शुरआत, राजीव गवरनेंट ने की। इसे GST की शुरआत कहिये।

तकनीक, और मशीन आयात आसान हुए।असल मे वे मीनारें जिसके शीर्ष पर मनमोहन और यशवंत और प्रणव बैठे हैं, राजीव उसकी नींव डाल गए थे।

पर एक गलती कर गए।
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1988 में पहली बार, वित्तमंत्री राजीव ने ही कार्पोरेट टैक्स पर निगाह डाली। दरें घटाया, लेकिन टैक्स से बचना कठिन किया। नतीजा दोतरफा आया।

कारपोरेट टैक्स से सरकार की आय बढ़ी। देश आगे बढ़ा। पर छापे भी पड़े। और मुम्बई क्लब के धन्नासेठ जो लाइसेंस राज में मजबूती से सिस्टम में मलाई काट रहे थे दिक्कत में थे।

इनमे एक रामनाथ गोयनका थे।
मीडिया मुगल भी थे।
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उनका अखबार था, इंडियन एक्सप्रेस। गोयनका ग्रुप के वित्तीय सलाहकार एस गुरुमूर्ति ने सरकार की बदनामी का अभियान छेड़ दिया।

सम्पादक सुमन दुबे को यह जर्नलिस्टिक एथिक्स के खिलाफ लगा। उनसे इस्तीफा ले लिया गया। नया सम्पादक आया

अरुण शौरी!!

अब इंडियन एक्सप्रेस में रोज एक स्टोरी होती, भ्रस्टाचार के नए आरोप। कुछ आरोप अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ के विदेशी खातों के थे। अमिताभ, तब राजीव के दोस्त और कांग्रेस सांसद थे, तो यह राजीव पर अप्रत्यक्ष हमला था।

वित्तमंत्री और फिर रक्षामंत्री रहे वीपी भी तमाम कानाफूसी उपलब्ध कराते रहे।जर्मन पनडुब्बी की खरीद या स्वीडन से तोप की खरीद .. कैबिनेट के अंदर से अफवाहों को हवा दी जा रही थी।

ये आरोप, आने वाले वक्त में कभी भी किसी कोर्ट या जांच में साबित नही हुए।

पर वीपी सहित राजीव के कुछ साथी दगा देकर, खिलाफ खड़े हो गए। अफवाहों के अप्रूवर बन गए ।

सड़क से सन्सद तक हुआं हुआं शुरू हो गयी। शोरगुल को जनता ने सही मान लिया, राजीव चुनाव हार गए।

जिस बछड़े को पाकिस्तान और चीन हरा न पाए, अपनो ने धराशायी कर दिया। क्या ये महज राजनीति थी???

इट वाज आल अबाउट इकॉनमी स्टुपिड !!!
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पुनश्च -

ये सब किस्सा आपको नही पता होगा। पर ये याद होगा कि अरुण शौरी कालांतर में अटल के जूनियर मंत्री बनें। कश्मीरी पंडित भगाने के विशेषज्ञ जगमोहन भी उसी सरकार में जूनियर मंत्री थे, याद है?

स्वदेशी जागरण मंच और RSS विचारक गुरुमूर्ति को इनाम जरा देर से मिला। मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक के बोर्ड में बिठाया। कृतघ्न  अमिताभ "कुछ दिन गुजरात मे गुजारने" की गुहार लगाते फिरते हैं। इंडियन एक्सप्रेस, मन की एक्सप्रेस हो चुका है।
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कारपोरेट के हाथ, देश की अस्मिता गिरवी रखना ही चाणक्य नीति हुई है।

देश को आगे ले जाने के लिए, कारपोरेट की ताकतों से लोहा लेने वाला व्यक्ति, अनुभवहीन और कच्चा माना जा सकता है। मगर मैं इसे अलग नजर से देखता हूँ।

यह कि श्रीपेम्बुदुर में आज के दिन जो खून बहा था..

उस खून में व्यापार नही था।
🙏

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